मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

आज प्रकाश अर्श का जन्‍मदिन है सो आज प्रकाश से ही सुनते हैं उसकी एक चौंका देने वाली ग़ज़ल । ये ग़ज़ल उन सबको चौंका देगी जिन्‍होंने अर्श का प्रारम्भिक लेखन देखा है ।

जन्‍मदिवस एक ऐसा अवसर होता है जब हम पीछे मुड़ के देखते हैं । देखते हैं कि जिन उद्देश्‍यों को लेकर पिछले साल आगे चले थे उनमें कहां तक पहुंचे हैं । वे सारे कार्य जिनको हम इसी जीवन में पूरा करना चाहते हैं, वे कार्य अभी किस अवस्‍था में हैं । जन्‍मदिन के दिन पीछे मुड़ के देखना बहुत ज़रूरी है । इसलिये क्‍योंकि इसके ही बाद आपकी आगे की यात्रा की ज़रूरी बातें तय होंगी । एक वर्ष का ये चक्र जब पूरा होता है तो सुकवि अटल बिहारी के शब्‍दों में 'क्‍या खोया क्‍या पाया जग में, मिलते और बिछड़ते मग में'  जैसा आकलन बहुत ज़रूरी है । प्रकाश अर्श का आज जन्‍मदिन है। सबसे पहले तो प्रकाश को पहले शादीशुदा जन्‍मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं । और अब बात प्रकाश की ग़ज़ल की । ये ग़ज़ल मुझे चौंका गई । चौंका गई उस विस्‍तार को दे कर जो प्रकाश की ग़ज़ल में अब देखने को मिल रहा है ।

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ये क़ैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता है

आइये प्रकाश अर्श को जन्‍मदिन की शुभकामनाएं देते हुए सुनते हैं ये ग़ज़ल ।

ARSH

प्रकाश सिंह अर्श

हर वक़्त सोचता हूँ, ये कैसा मस'अला है ?
फूलों का रंग क्या हो, मौसम पे आ टिका है !

रख कर हक़ीक़तों को गिरवी मैं आ गया हूँ ,
कुछ लोग कह रहे थे,  तू ख़ाब बांटता है ?

जब सल्तनत के सारे प्यादे वजीर हैं तो,
ये आम आदमी क्यूँ, क्यूँ इनका मुद्द'आ है ?

मैं रोना चाहता था और ये भी देखिये अब,
किस्मत से एक तिनका आँखों में आ गिरा है !

कुछ तो शऊर ज़िंदा इनमें भी हो की अब तो,
इस शह्र की हवा में ये जिस्म जल रहा है !

सब खर्च कर के देखो रिश्तों की अपनी पूंजी,
और फिर ये देखना की आखिर में क्या बचा है ?

ये भीड़ आ लगी है साए से डर के अपने,
जिसकी यहाँ दुकां है वो धूप बेचता है !

दुनिया की तजरबों से मुझको हुआ ये हासिल,
हर रात की सहर सा सब कुछ तो तयशुदा है !

अफवाह की वो आंधी कल ख़ाक कर गई सब,
अब देखना है ये की मलबे में क्या दबा है ?

बौने ही रह गए  हैं आँखों के ख़ाब सारे ,
मजबूरियों का बरगद इस घर में पल रहा है !

इतना तो बस बता दे, क्या दोष था हमारा,
"ये कैदे बामशक्कत जो तूने की आता है !!"

मैं रोना चाहता था और ये भी देखिये अब, ये शेर बहुत बहुत कमाल बना है । इसमें किस्‍मत से आंखों में गिरे तिनके की तो बात ही क्‍या है । पूरी ग़ज़ल उस निम्‍न मध्‍यम वर्गीय जीवन का चित्र बनाती है जो हर पल छोटी छोटी इच्‍छाओं को घुट कर मरते हुए देखता है । बौने ही रह गए हैं आंखों के ख़ाब सारे में बरगद का प्रतीक हैरते में डालने वाला है । कमाल का प्रतीक है । हैरत में हूं । जब सल्‍तनत के सारे प्‍यादे वज़ीर हैं तो में भी उसी प्रकार की सोच सामने आ रही है जिसमें विस्‍तार है मिसर सानी पर कुछ और मेहनत के बाद एक नायाब शेर हो सकता है । वर्तमान के पूरे समय को बखूबी रेखांकित करता हुआ मतला सामने आता है । सब कुछ कह कर कुछ नहीं कहना । बहुत सुंदर वाह वाह वाह ।

तो बच्‍चे को जन्‍मदिन पर बधाई दीजिए और दाद दीजिए उसकी सुंदर ग़ज़ल पर । 

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

आतंकियों से पूछें, पूछें जेहादियों से इंसानियत का जज़्बा, क्या उन का मर गया है ? यह एक प्रश्‍न है डॉ आज़म का जो आज की ग़ज़ल के रूप में सामने आया है ।

शनिवार को एक फोन आया । फोन आया बहुत स्‍नेह और प्रेम से बोलने वाली बहन जी का । फोन था सरहद पार से । उस पार से जिसे हम अपना शत्रु समझते हैं । बहन जी ने मेरी  कहानियों का उर्दू में अनुवाद किया है, वे खुद भी साहित्‍यकार हैं । वे एक बुज़र्ग हैं । पिछले साल दिल का दौरा झेल चुकी हैं । बात करती हैं तो इतना मीठा बोलती हैं कि बस सुनते रहो । बहन जी से जब शनिवार को बात हुई तो बात होते होते अचानक उनकी आवाज़ में उदासी छा गई । गहरी और स्‍याह उदासी । कहने लगीं कि बेटा हम तो यहां खून के दरिया और मौत के अंधेरे में जी रहे हैं पता नहीं कब क्‍या हो जाए। हालात बदलने की कोई सूरत नहीं नज़र आती । उनकी आवाज़ कांप रही थी। उनकी आवाज़ की उदासी ने सारा दिन मुझे उदास रखा । उनका एक वाक्‍य बेटा तुमसे मिलने की बहुत इच्‍छा है लेकिन...... । उस लेकिन शब्‍द की उदासी मेरे मन में आज भी फैली है ।

ये क़ैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता है

आज की ग़ज़ल उसी फोन के संदर्भों को आगे बढ़ाती है । डॉ आज़म ने जब ग़ज़ल पर काम शुरू किया तो किसी और मानसिकता में थे किन्‍तु, उसी बीच हैदराबाद हो गया । और पूरी मानसिकता बदल गई । आज की डॉ आज़म की ग़ज़ल और   सरहद पार की बहन जी की वो बात कि हालात बदलने की कोई सूरत नज़र नहीं आती, ये दोनों एक ही सुर में हैं । दर्द के सुर में । बहन जी की पीड़ा रह रह कर मुझे सालती है । मैं उनके लिये कुछ नहीं कर सकता । कोई इस पूरी पीड़ा के लिये कुछ नहीं कर सकता । काश काश काश ये सभ्‍यता का पूरा विकास समाप्‍त हो जाए, काश इन्‍सान के बनाए हुए ये धर्म ये देश ये जातियां ये सब समाप्‍त हो जाएं । काश काश काश । मगर, लेकिन, किन्‍तु.........।

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डॉ आज़म

अरे भाई गज़ल लिख ही रहा था कि हैदराबाद का खूनी वाक़ेया हो गया...तो गज़ल का रुख़ ही बदल गया....पहले गज़ल के चंद शेर पेश है....

सब की नज़र में आज़म, माना बहुत बुरा है
लेकिन यहां कोई भी, क्या दूध का धुला है ?

क्या पिछले जन्म की कुछ, मुझ को मिली सज़ा है
''ये क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त, जो  तूने की अता है''

कहते  हैं कुछ 'विचारक', होती जहां जि़ना* है
भारत नहीं वो हरगिज़, वो मुल्क इंडिया है

आदत ही पड़ गयी है, चलने की लड़खड़ा कर
हालांकि  देखिए तो, हमवार रास्ता है

हरकत में इस तरह है, जैसे मशीन कोई
जीने की आरज़ू में, हर शख्स मर रहा है

इतने ही शेर हुए थे की ग़ज़ल का रुख़ बदल गया

इक बार फिर से हावी, आतंक हो गया है
हिन्‍दोस्‍तां  का चेहरा, फिर खून से सना है

हर शख्स डर रहा है,  हर शह्र कांपता है
कब तक बताएं कब तक, खूनी ये सिलसिला है

आहें,  कराहें, चीखें, और चीथड़े बदन के
मंज़र तमाम जैसे,  इक क़त्ल-गाह का है

ज़ेह्नों में दुख के बादल, आंखों में खूं के आंसू
दिलसुख नगर का मंज़र, दिल दुख से भर गया है

कैसे रुकेगा आख़िर, पूछें ये हाकिमों से
भारत की अस्मिता पर, जो हमला हो रहा है

आतंकियों से पूछें, पूछें जेहादियों से
इंसानियत का जज़्बा, क्या उन का मर गया है

''मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना ''
सफ्फाक ज़ालिमों को, क्या ये नहीं पता है

अम्‍न-ओ-अमां रहे बस, हिन्‍दोस्‍तां में क़ायम
आज़म की तुझ से इतनी, फरयाद ऐ खुदा है

ग़ज़ल जो सवाल उठा रही है उनके उत्‍तर कौन तलाशेगा । आतंकियों से पूछें पूछें जिहादियों से, आज़म जी ने बहुत गहरा प्रश्‍न किया है । आतंक का कोई धर्म कोई मज़हब नहीं होता है । आतंक केवल आतंक होता है । नीचे की पूरी मुसल्‍सल ग़ज़ल एक प्रार्थना के रूप में उस दहशत के विरोध में उठने का प्रयास कर रही है । दहशत जो इस पूरे उपमहाद्वीप में फैली है और हम सब इसके लिये एक दूसरे पर इल्‍ज़ाम लगा रहे हैं । इकबाल के मशहूर मिसरे को बहुत सुंदरता के साथ आज़म जी ने अपने शेर में गिरह लगा कर गूंथा है । बहुत सुंदर । और अंत में मकते का शेर एक दुआ के रूप में गूंजता है । काश ये गूंज पूरे उप महाद्वीप में फैल जाए । काश ये प्रार्थना क़ुबूल हो जाए । काश काश काश ।

तो सुनिये इस गज़ल को और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये । शामिल होइये इस दर्द के सुर में जो हम सबका साझा है ।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

आइये आज सुनते हैं गीतकारों की रचनाएं । राकेश खंडेलवाल जी का गीत और रविकांत पांडेय की ग़ज़ल ।

तरही का अपना क्रम है । और कोई क्रम भी  नहीं है । जब जो ग़ज़ल या गीत लगना है सो लग गई । और इस बीच कभी मौज आ गई तो कुछ भूमिका लिख दी, जैसी पिछले अंक में लिख दी गई थी । कभी कुछ नहीं लिखा । आप लोगों को वो भूमिका पसंद आई उसके लिये आभार  । एक प्रश्‍न जो हमेशा मुझे मथता रहता है वो ये है कि हमारा ये जीवन क्‍या रवायतों, परम्‍पराओं, नियमों का पालन करने के लिये हुआ है । मुझे लगता है नहीं, हम सब जो कुछ बौद्धिक स्‍तर पर ऊंचा उठ गये हैं, हमारा जीवन नियमों का आकलन करने तथा उनमें से खराब नियमों को खारिज करने के लिये बना है । खैर आइये आज का क्रम आगे बढ़ाते हैं ।

''ये क़ैदे बामशक्‍कत जो  तूने की अता है''

शिकस्‍ते नारवा दोष इस बार की बहर में यदि ध्‍यान नहीं रखा जाए तो एक दोष बनने की संभावना है । इस दोष को शिकस्‍ते नारवा कहा जाता है । इस बार की बहर में हर मिसरा असल में दो खंडों में स्‍पष्‍ट रूप से बंटा हुआ है । अर्थात एक छोटे से विश्राम के बाद दूसरा खंड उठता है । जैसे कि ये कै़दे बामशक्‍कत.... (विश्राम) जो तूने की अता है । इस विश्राम को हम अल्‍प विराम  से दर्शा सकते हैं । किन्‍तु यदि किसी मिसरे में हमने कोई शब्‍द ऐसा ले लिया जो कि पहले खंड 221-2122 के पूरे होने पर भी पूरा नहीं हुआ जैसे यदि हमने लिखा 'ये क़ैद जो हमें तूने दी है उम्र भर की' । अब यदि इसको वज़न पर कसें तो रुक्‍न बनते हैं 221-2122-221-2122 मतलब वज्‍न ठीक है । किन्‍तु हो क्‍या रहा है कि 'तूने' शब्‍द का विच्‍छेद हो रहा है  'तू'  2122 में और 'ने' 221 में जा रहा है । इसके कारण क्‍या होगा कि हम 221-2122 के बाद विश्राम नहीं ले पाएंगे क्‍योंकि 'तूने' शब्‍द तो खतम हुआ ही नहीं है । इस प्रकार की बहुत सी बहरें हैं जिनमें ये दोष बनता है । 12122-12122-12122-12122 बहर जिस पर हमने एक बार होली पर काम किया था उसमें तो हर 12122 पर विश्राम होना चाहिये, मतलब मिसरा स्‍पष्‍ट रूप से चार खंडों में बंटा होना चाहिये ।

आज की तरही में हम सुनते हैं श्री राकेश खंडेलवाल जी का गीत और रविकांत पांडेय की ग़ज़ल । दोनों ही मूल रूप से गीतकार हैं । दोनों को एक साथ सुनने में अलग ही आनंद है ।

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रविकांत पांडेय

सबकी जुदा है फितरत, हर शख्स रहनुमा है
जाए भला किधर ये, मुश्किल में काफिला है

हमने तरक्कियों की ऐसी लिखी इबारत
इंसान इस सदी का, रोबोट हो गया है

चांदी के चंद सिक्के करते हैं फैसले सब
बिकते हैं हम खुशी से, हैरत नहीं तो क्या है

किस्मत को कोसने से होगा न कुछ भी हासिल
ये जिंदगी हमारे कर्मों का सिलसिला है 

पूछा, मनुष्य क्या है, तो इक फकीर बोला
बस आग पानी मिट्टी आकाश और हवा है

कुछ और शेरे गम दे, हो ये गज़ल मुक्ममल
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है

देखन में छोटे लगे घाव करें गंभीर । छोटी ग़ज़लों की अपनी मारक क्षमता होती है । पहली चर्चा मतले की । मतला बहुत विशिष्‍ट सोच के साथ गढ़ा गया है । बात इस प्रकार से कही गई है कि बस आनंद आ जाए । पूरा समय इस मतले में अभिव्‍यक्‍त हो गया है । कविता वही होती है जो अपने समय को अभिव्‍यक्ति प्रदान करे । फिर बात पंच तत्‍व वाले शेर की । बहुत सुंदर बात कही है  । मिसरा सानी सुंदर गढ़ा है । मिसरा उला पर कुछ और मेहनत हो जाती तो एक कमाल हो जाता । इंसान के रोबोट होने वाला शेर अपने समय पर बहुत गहरा कटाक्ष है । वाह वाह वाह ।

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श्री राकेश खंडेलवाल जी

ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है
मैं सोचता हूँ पाया किस बात का सिला है

दीवार हैं कहाँ जो घेरे हुए मुझे है
है कौन सी कड़ी जो बांधे हुए पगों को
मुट्ठी में भींचता है इस दिल को क्या हवाएं
है कौन सा सितम जो बांधे हुए रगों को
धमनी में लोहू जैसे जम कर के रुक गया है
धड़कन को ले गया है कोई उधार जैसे
साँसों की डोरियों में अवगुंठनों   के घेरे
हर सांस मांगती है मज़दूरियों के पैसे

ये कौन से जनम की बतला मुझे खता है 
ये कैदे बामशक्कत जो तूने की अता है

हो काफ़िये के बिन ज्यों  ग़ज़लों में शेर कोई
बहरो वज़न से खारिज आधी लिखी रुबाई
इस ज़िंदगी का मकसद बिखरा हुआ सिफर है
स्याही में घुल चुकी है हर रात की जुन्हाई
आवारगी डगर की हैं गुमशुदा दिशायें
हर दर लगाये आगल उजड़े हुये ठिकाने
कल की गली में खोया लो आज ,कल हुआ फिर
अंजाम कल का दूजा होगा ये कौन माने

खाली फ़लक से लौटी दिल की हर इक सदा है
क्या कैदे बामशक्कत ये तूने की अता है

काँधे की एक झोली उसमें भी हैं झरोखे
पांवों के आबलो की गिनती सफर न गिनता
सुइयां कुतुबनुमा की करती हैं दुश्मनी  अब
जाना किधर है इसका कोई पता ना मिलता
हर एक लम्हा मिलता होकर के अजनबी ही
अपनी गली के पत्थर पहचान माँगते हैं
सुबह से सांझ सब ही सिमटे हैं दो पलों में
केवल अँधेरे छत बन मंडप सा तानते हैं

अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है
क्या कैदे  बामशक्कत ये तूने की अता है।

राकेश जी के गीत पर लिखते समय मुझे बड़ी दुविधा होती है । किस बंद का जिक्र करूं, किस पंक्ति को उल्‍लेखित करूं और किसको नहीं करूं । राकेश जी परिमल गीतों के कवि हैं, किन्‍तु तरही के नियम का आदर करते हुए उन्‍होंने वर्तमान समय पर जिस प्रकार से गीत लिखा है वो अद्भुत है । कहीं किसी का नाम नहीं, कहीं कोई सीधा जिक्र नहीं । किन्‍तु ऐसा लगता है कि गीत हम सबकी कहानी कह रहा है । गीत हमारी ही पीर को शब्‍द देते हुए गुज़रता है । किसी ने कहा है कि कविता वही होती है जो हर किसी को अपनी ही कहानी लगे । ये गीत हम सब की कहानी है । 'अपनी गली के पत्‍थर पहचान मांगते हैं' ये पंक्ति पूरे गीत से अलग एक पूरा गीत है । हम सबका जीवन यही तो है कि हमारी ही गली के पत्‍थर हमसे ही पहचान मांग रहे हैं और हम यही कह रहे हैं कि 'अपना कहीं से कोई मिलता नहीं पता है' । क्‍या सुंदर गीत वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिये दोनों रचनाओं का और देते रहिये दाद । जैसा कि पिछली बार हमने शिवरात्रि पर 'सुकवि रमेश हठीला शिवना सम्‍मान' श्री नीरज गोस्‍वामी जी को घोषित किया था जो 2 दिसम्‍बर को प्रदान किया गया । सम्‍मान  इस बार भी होना है । चयन समिति अपनी प्रक्रिया में है और महाशिवरात्रि के दिन हम इस वर्ष का सम्‍मान घोषित करने की स्थ्‍िति में होंगे ।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

क्यों खौलता नहीं है ये खून बाजुओं में, घर जल गया, हुआ क्या, कुनबा अभी बचा है, आइये दिगम्‍बर नासवा और शार्दूला नोगजा जी की नज़रों से देखें वर्तमान को ।

कुछ लोग पूछते हैं कि ये दुष्‍यंत की परम्‍परा क्‍या है । इस प्रश्‍न का उत्‍तर बहुत ही कठिन है । दरअसल दुष्‍यंत की परम्‍परा कहीं भी कबीर और ग़ालिब से अलग कोई नई परम्‍परा नहीं है । हमारी राजनैतिक व्‍यवस्‍था में सत्‍ता पक्ष और प्रतिपक्ष जैसा कुछ नहीं होता । वहां एक ही पक्ष होता है 'सत्‍ता पक्ष' । जो प्रतिपक्ष है वो भी सत्‍ता में ही है । राजनीति में जो कुछ भी सत्‍ता पक्ष है या सत्‍ता प्रतिपक्ष है वो दरअसल जनता के विपक्ष में है, एक स्‍थाई विपक्ष । स्‍थाई विपक्ष जो राजा रजवाड़ों से अंग्रेजों और अंग्रेजों से लोकतंत्र तक आने के बाद भी नहीं बदला, उसी प्रकार आमजन के विपक्ष में रहा । ऐसे में इस सत्ता का विपक्ष कौन है, प्रतिपक्ष कौन है ? प्रतिपक्ष होती है 'कविता' । जो इन 'सत्‍ता पक्ष' और 'सत्‍ता प्रतिपक्ष' के विपक्ष में स्‍थाई रूप से, सतत खड़ी होती है । कविता जनता के पक्ष में खड़ा एक स्‍थाई प्रतिपक्ष है । इस बात के द्वारा हम कबीर से गालिब और गालिब से नागार्जुन, दुष्‍यंत की पूरी परम्‍परा को समझ सकते हैं । अब इस स्‍थाई विपक्ष के लिये सबसे आवश्‍यक बात ये है कि ये व्‍यक्ति के विरोध में न होकर व्‍यवस्‍था के विरोध में हो । दोष व्‍यक्ति का नहीं होता बल्कि व्‍यवस्‍था का होता है । हम चुनावों में व्‍यक्ति को बदल कर सोचते हैं कि अब सब बदल जाएगा । किन्‍तु सब कुछ वैसा का वैसा ही रहता है । कुछ नहीं बदलता । कविता किसी का नाम ले लेती है तो वो कमजोर हो जाती है । कविता को किसी का नाम नहीं लेना है । हमें चयन करना होगा कि हमें व्‍यक्ति के विरोध में रहना है या व्‍यवस्‍था के । व्‍यक्ति के विरोध में लिखी गई कविता व्‍यक्ति के साथ ही समाप्‍त हो जाती है, व्‍यवस्‍था के विरोध में लिखी गई कविता बरसों बरस जिंदा रहती है । राजनीति का प्रयास ये होता है कि विद्रोह जब भी हो तो वो व्‍यक्ति के विरोध में हो, व्‍यवस्‍था के विरोध में न हो । कहीं कोई भी विद्रोह यदि व्‍यवस्‍था के विरोध में हो गया तो वो क्रांति में बदल जाएगा । राजनीति के लिये आसानी होती है व्‍यक्ति के विरोध में हो रहे विद्रोह को शांत करना । उसे केवल व्‍यक्ति ही तो बदलना है ।  तो बस इतना याद रखें कि व्‍यवस्‍था चेहरा है और व्‍यक्ति उस चेहरे का मुखौटा । आचरण क्‍या होगा ये चेहरा तय करता है । इसलिये वो कविता कमजोर होती है जो मुखौटे के विरोध में लिखी जाती है ।  और इसीलिये दुष्‍यंत जब कहते हैं कि 'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये' तो वे मोमबत्‍ती और मशाल के बीच के फर्क को स्‍पष्‍ट कर देते हैं । चौराहों पर मोमबत्‍ती जलाने से 'हंगामा खड़ा' हो सकता है किन्‍तु यदि 'सूरत बदलनी है' तो कविता को मशाल बनना होगा ।

'ये क़ैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता है'

इस बार के मिसरे में चार शब्‍द बहुत काम मांग रहे हैं 'क़ैद', 'बामशक्‍कत' 'तूने' और 'अता' । 'तूने' को व्‍यापक अर्थों में उपयोग करना होगा । और 'अता' शब्‍द भी जान बूझकर रखा गया है । मेरी इच्‍छा है कि ऊपर लिखी गई बातों के संदर्भ में इन चारों शब्‍दों और इस मिसरे को फिर से देखें ।

आइये आज सुनते हैं शार्दूला नोगजा जी और दिगम्‍बर नासवा जी से उनकी ग़ज़लें । यदि आप ध्‍यान से ध्‍वनियों को सुन पाएं तो आप पाएंगे कि दोनों ग़ज़लें दो अलग अलग रचनाकारों की भले हों किन्‍तु, दोनों की अंर्तध्‍वनियां एक सी हैं । दोनों एक ही सुर में रची गई हैं । कुछ शेर चौंकाने वाले तरीके से सामने आते हैं ।

DAI 0592

शार्दुला नोगजा जी 


ये कैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है
उसमें ग़रीब होना, मौला बड़ी सज़ा है

"मेरे दलान पर से, भूखा न जाए कोई"
अम्मा गई सिकुड़ती, बाबा का कद बढ़ा है

आराम-कुर्सियों पे कब, इन्कलाब बैठा
वो धूल-स्वेद लिपटा, बस में चढ़ा, चला है

मजदूर दंगई की, करता शिनाख्त कैसे
घर जल गया, हुआ क्या, कुनबा अभी बचा है

है पी चुका समुन्दर, मरुथल भी दुह चुका है 
अब तेल का कुआं वन, देहात में खुदा है

लिखने की दौड़ इतनी, के पढ़ सके न पूरा
जिसने तुम्हें सराहा, तुमको वही जंचा है ?

भरपेट, ऊँचे घर से, हूँ लिख रही गज़ल मैं
कब सोच पाई मितरो, जो तूने हंस सहा है

पहले बात उस शेर की जिसके मिसरा सानी में आया शब्‍द 'सिकुड़ती' स्‍त्री के पक्ष में लिखी गईं कई कई कविताओं पर भारी है । ये एक शब्‍द पूरी कविता है । फिर बात धूल और स्‍वेद की । इन्‍कलाब की परिभाषा गढ़ने में ये दोनों शब्‍द बहुत प्रभावी होकर सामने आये हैं । तीसरा शेर जो बिना कुछ कहे सब कुछ कह गया है । 'कुनबा अभी बचा है' में दंगई की पहचान नहीं करने और कुनबे के बचे होने का जो चित्र है वो उस मजदूर की पूरी कहानी कह जाता है । ये शेर उस परम्‍परा का है जिसकी हमने ऊपर बात की । तीनों शेर एक के बाद एक धड़ धड़ करके अपने समय की तीन समस्‍याओं पर चोट करते हुए ग़ुज़र जाते हैं । प्रभावशाली ग़ज़ल । खूब बहुत खूब ।

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दिगंबर नासवा

बीठें पड़ी हुई हैं, बदरंग हो चुका है
इंसानियत का झंडा, कब से यहाँ खड़ा है

सपने वो ले गए हैं, साँसें भी खींच लेंगे
इस भीड़ में नपुंसक लोगों का काफिला है

सींचा तुझे लहू से, तू मुझपे हाथ डाले
रखने की पेट में क्या, इतनी बड़ी सज़ा है

वो काट लें सरों को, मैं चुप रहूँ हमेशा
सन्देश क्या अमन का, मेरे लिए बना है

क्यों खौलता नहीं है, ये खून बाजुओं में
क्या शहर की जवानी, पानी का बुलबुला है

बारूद कर दे इसको, या मुक्त कर दे इस से
ये क़ैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है

सपने वो ले गए हैं सांसें भी खींच लेंगे, में एक के बाद एक दो शब्‍द पहले सपने और उसके बाद सांसें । यदि मैं जिस प्रकार  से इन शब्‍दों को ले रहा हूं, उसी प्रकार से आप लेंगे तो ये शेर आपको बहुत कुछ दे जाएगा । वो काट लें सरों को मैं चुप रहूं हमेशा उस सशस्‍त्र क्रांति के ठीक पहले की मनोवस्‍था को बता रहा है । और उसके ठीक बाद पानी के बुलबुले का आना । सशस्‍त्र क्रांति अपने समय में कभी स्‍वीकृत नहीं हो पाती उसे हमेशा बाद में मान्‍यता मिलती है । अंतिम शेर में जो गिरह बांधी है उसमें मिसरे में जो पीड़ा है वो बहुत प्रभावशाली तरीके से अभिव्‍यक्‍त हो गई है । पूरी की पूरी ग़जल एक ही सुर में गूंज रही है । खूब बहुत खूब ।

तो इन दोनों ग़ज़लों को महसूस कीजिए (मैं आनंद लीजिए नहीं कह रहा हूं) । महसूस करके दाद दीजिये । दाद दीजिए क्‍योंकि आप दाद देने में इस मुशायरे में अभी तक कुछ कमजोर साबित हो रहे हैं । ऐसा न हो कि आगे से मुशायरे के आयोजन पर विचार करना पड़े । थोड़ा कहा बहुत समझना ।

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

नेता का पुत्र नेता मंत्री का पुत्र मंत्री, संसद से हाइवे तक सदियों का फ़ासला है, आइये तरही का क्रम आगे बढ़ाते हुए आज सुनते हैं धर्मेन्‍द्र कुमार सिंह और नवनीत शर्मा की ग़ज़लें ।

तरही को लेकर लोगों में उत्‍साह धीरे धीरे बढ़ना शुरू होता है । हम भारतीय लोग बिजली का बिल भरने तक के लिये अंतिम तिथि का इंतज़ार करते हैं । तो ये तो तरही मुशायरा है । इस बार ग़जल़ें धीरे धीरे आना शुरू हुईं और अभी भी आ रही हैं । इस बार का तरही मुशायरा हमने समाजिक सरोकारों पर केन्द्रित रखने का तय किया है । ऐसा नहीं है कि अब तक के मुशायरों में ये सामाजिक सरोकार नहीं होता था । मगर इस बार पूरा मुशायरा ही सामाजिक सरोकार  पर केन्द्रित होगा । इस बार हमने बहरे मुजारे को लिया है । बहरे मुजारे गाई जाने वाली बहर है । जिसकी कई कई उप बहरें गाने में बहुत मधुर हैं । हमने जो बहर ली है वो है बहरे मुजारे मुसमन अखरब ये तो खूब गाई जाने वाली बहर है ही । आइये मुजारे की एक और उपबहर के बारे में जानते हैं ।

बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मकफूफ महजूफ ( मफऊलु-फाएलातु-मुफाईलु-फाएलुन 221-2121-1221-212 ) यह तो काफी सुप्रसिद्ध बहर है । इस पर काफी काफी काम होता है । मुशायरों में इस बहर पर खूब खूब ग़ज़लें पढ़ी जाती हैं । और उमराव जान का मशहूर गीत 'दिल चीज क्‍या है आप मेरी जान लीजिये' तो आप जानते ही हैं ।

''ये क़ैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता है''

आइये आज सुनते हैं दो शायरों से उनकी ग़ज़लें सुनते हैं । धर्मेन्‍द्र कुमार सिंह से तो हम सब खूब खूब परिचित हैं । नवनीत शर्मा संभवत: मुशायरे में पहली बार आ रहे हैं । सो प्रथम आगमन पर पूरे ग़ज़ल गांव की ओर से उनका स्‍वागत है ।

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

घर से न राम निकले इतनी ही सब कथा है
गद्दी पे फिर भी बैठी क्यूँ मूक पादुका है

इतना मुझे बता दे किस जुर्म की सजा है
ये कैद-ए-बामुशक्कत जो तूने की अता है

हर धार खुद-ब-खुद है नीचे की ओर बहती
ये कौन पंप दौलत ऊपर को खींचता है

कथनी को छोड़कर वो करनी पे जब से आया
तब से ही मीडिया की नज़रों से गिर गया है

ब्लड बैंक खोलकर जो करता है अब कमाई
इतिहास देखिएगा खटमल वही रहा है

मरना है कर्ज में ही कर लाख तू किसानी
ये संविधान है या शोषक की संविदा है

नेता का पुत्र नेता मंत्री का पुत्र मंत्री
गणतंत्र गर यही है तो राजतंत्र क्या है

झूठे मुहावरों से हमको न यूँ डराओ
आँतों को काट देगा पिद्दी का शोरबा है

नेता का पुत्र नेता, मंत्री का पुत्र मंत्री, गणतंत्र गर यही है तो राजतंत्र क्‍या है, बिना किसी का नाम लिये बहुत खूब कहा है । मरना है कर्ज में ही कर लाख तू किसानी, में बहुत प्रभावी तरीके से देश की एक प्रमुख समस्‍या को उभारा है । हर धार खुद ब खुद है नीचे की ओर बहती में पूंजीवाद और भ्रष्‍टाचार को प्रतीक के माध्‍यम से खूब अभिव्‍यक्‍त किया है । सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।

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नवनीत शर्मा

माँगी थी धूप मैंने बस जुर्म ये हुआ है
यह क़ैदे बा मशक़्क़त जो तूने की अता है

मेहनतकशों को सूखी रोटी भी है ग़नीमत
जो दुम हिलाएं उनको बादाम-नाश्ता है

गुफ़्तार से कहाँ है ग़ुर्बत का तोड़ कोई
संसद से हाइवे तक सदियों का फ़ासला है

कैसे निजात देंगे उनको भला दिलासे
फ़ाक़ों से अब भी जिनका दिन-रात वास्ता है

मौसम तमाम दुश्मन दुश्वार सांस लेना
हम जी रहे हैं फिर भी अपना ये हौसला है

वो सो रहा है कब से जिसको जगाना चाहूं
मैं रह रहा हूं जिसमें वो शख्स लापता है

आजाद हो गया हूं लेकिन गुलामियों का
साया सा इक बराबर मेरे साथ चल रहा है

वो सो रहा है कबसे जिसको जगाना चाहूं, बहुत बढि़या तरीके से बात कही है । मैं रहा रहा हूं जिसमें वो शख्‍स लापता है बहुत सुंदर । कैसे निजात देंगे उनको भला दिलासे, शेर अंतिम छोर पर खड़े आदमी के हक़ में खड़ा हुआ दिखाई देता है । और गुफ्तार से कहां है शेर में मिसरा सानी में संसद से हाइवे तक जो सदियों का फासला है वो खूब बना है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।

तो ये आज के दोनों शायरों की दो महत्‍वपूर्ण ग़ज़लें । इनका आनंद लीजिये और दाद दीजिये । मिलते हैं अगले अंक में कुछ और ग़जल़ों के साथ ।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

आज वसंत पंचमी है और आज ही 14 फरवरी भी है तो आइये आज से ही शुरू करते हैं तरही मुशायरा ।

इस बार का तरही मुशायरा कुछ अलग सोच के साथ होना है । अलग तेवर की ग़जल़ें और अलग प्रकार के शेर इस बार सुनने को मिलने हैं ये तय है । आज वसंत पंचमी है तो पहले वसंत पंचमी पर की जाने वाली सरस्‍वती पूजन की जाए ।

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या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।1।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।
हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।2।।

आइये अब प्रारंभ करते हैं तरही मुशायरा ।

ये क़ैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता  है

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वे कहने को तो कंचन की बड़ी दीदी थीं, किन्‍तु ऐसा लगता नहीं था कि वे केवल कंचन की ही बड़ी दीदी हैं । पिछले कुछ सालों से अपनी पूरी जीवटता के साथ वो केंसर जैसी बीमारी के साथ संघर्ष कर रही थीं । हम सब सोचते थे कि कोई चमत्‍कार होगा । मगर नहीं हुआ । और 27 जनवरी को केवल स्‍मृति शेष रह गईं । पिछली बार जब मैं लखनऊ गया था तो अपनी बीमारी के बाद भी वे चल कर मुझसे मिलने आईं थीं । उनसे मिलकर अंदर तक एक भीगा सा अपनापन फैल जाता था । कंचन के लिये उनका जाना एक ऐसा नुकसान है जिसको शब्‍दों में व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता । वे कंचन के लिये रोल मॉडल थीं । कंचन के लिये वे स्‍थाई चीयर लीडर थीं । हमेशा कंचन का उत्‍साह वर्द्धन करते हुए उसके पीछे खडी़ रहती थीं । जब ये मिसरा दिया था तब नहीं पता था कि नियति की मंशा क्‍या है । किन्‍तु अब ऐसा लगता है कि ये मिसरा उनके उस संघर्ष को प्रतिबिम्बित करता है जो उन्‍होंने किया । सो ये मिसरा और इस पर कही गईं ग़ज़लें उन्‍हीं को समर्पित ।

मैं नहीं जानता कि मैंने कंचन से ये जिद क्‍यों की, कि इस बार का तरही मुशायरा कंचन की ही गज़ल से होगा और अपनी निर्धारित तारीख पर ही होगा । मगर ये कह सकता हूं कि कंचन ने मेरी जिद का मान रखा । और ऐसे समय में भी ये ग़ज़ल लिख कर भेजी । जैसा मैंने पहले भी कहा कि मुझे भी नहीं पता कि मैंने ये जिद क्‍यों की । तो आज तरही मुशायरे के प्रारंभ में कंचन की ये ग़ज़ल ।

न इस ग़ज़ल के पहले कोई बात न ग़ज़ल के बाद कोई बात । कुछ चीज़ें कहने सुनने से परे अनुभूत करने की होती हैं । सो बस अनुभूत कीजिये ग़जल़ को ।

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कंचन सिंह चौहान

क्‍या मैंने था लिखा और क्‍या तूने पढ़ लिया है,
अरज़ी थी मौत की पर, दी  ज़ीस्त की सज़ा है।

माना है तुझको प्रीतम, तू तो मेरा पिया है,
मरना मेरा ये तिल तिल, तू कैसे झेलता है।

फाँसी चढ़ा कि सूली, बेहतर हज़ार इससे,
''ये कैदे बामशक्कत, जो तूने की अता है।''

सारे शहर में मेरा बस एक था ठिकाना,
जाना ये आज ही है, जब तू नही रहा है।

दफ्तर में तेरे भी है शायद यहीं के जैसा,
तकदीर जैसी शै का, रिश्वत से फैसला है।

डोली चढ़ी तो बोली, बस कुछ क़दम है जाना,
इस बार के सफर का, कोई नही पता है।

कुछ भी तो कह न पाए, कुछ भी तो सुन न पाए
झटके से फेरना मुँह, ये कैसा कायदा है।

इक बार चूम लेते, इक बार लग के रोते,
इक बार ये तो कहते, बस अब ये अलविदा है।

मीरा, कबीर, सूफी, ज़ेह्नो जिगर, खुदा तक,
जाँ कैसे छोड़ दी जब, सब मेरा ले गया है।

मैं पहले ही कह चुका हूं कि जब अनुभूत करने की बात आ जाए तो शब्‍दों के बिना ही काम चलाना होता है । कई बार शब्‍द अनुभूति को पूरी तरह से अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाते । कई बार मौन किसी चीज़ को ज्‍़यादा अच्‍छी तरह से अभिव्‍यक्‍त कर देता है । सो कंचन की इस ग़ज़ल को मैं अनुभूत कर रहा हूं आप भी करिये ।

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

तरही मुशायरे को लेकर कुछ मिश्रित सी प्रतिक्रिया आई है, काफी लोगों ने अपनी ग़ज़लें भेज भी दी हैं ।

इस बार के मुशायरे को लेकर मिश्रित सी प्रतिक्रिया है । मिसरे को लेकर कुछ लोगों का कहना है कि कठिन है, तो कुछ लोगों का कहना है कि विषय में बांधने के कारण कुछ कठिनाई हुई है । मगर ऐसे भी लोग हैं जिनकी ग़ज़लें मिसरा घोषित होने के सप्‍ताह भर के अंदर ही प्राप्‍त हो गईं हैं । और बहुत सुंदर ग़ज़लें प्राप्‍त हुई हैं । इस बार कुछ नये लोगों की भी ग़जल़ें मिली हैं । आइये आज के पाठ में बहरे मुजारे के बारे में कुछ और विस्‍तार से जानने का प्रयास करते हैं ।

बहरे मुज़ारे ( मुरक्‍कब बहर )

सालिम बहर

इस बार का मिसरा जैसा कि पिछली बार बताया था ये बहरे मुजारे मुसमन अखरब पर आधारित मिसरा है । ये बहर मुरक्‍कब बहर है अर्थात दो प्रकार के रुक्‍नों से मिल कर ये बहर बनी है । मुफाईलुन और फाएलातुन रुक्‍नों से मिलकर मुजारे का सालिम रुक्‍न बनता है । अर्थात बहरे हजज और बहरे रमल के स्‍थाई रुक्‍नों से मिलकर बहरे मुजारे को बनाया गया है । मुजारे की सालिम बहर में मुफाईलुन और फाएलातुन एक के बाद एक दो बार आते हैं । मुफाईलुन-फाएलातुन-मुफाईलुन-फाएलातुन ( बहरे मुज़ारे मुसमन सालिम के रूप में उपयोग में नहीं लाई जाती है, इसकी मुज़ाहिफ़ बहरें ही उपयोग में लाई जाती हैं । )

मुज़ाहिफ़ बहरें

जैसा कि आपको पता होगा कि सालिम बहर के स्‍थाई रुक्‍नों में जब परिवर्तन किया जाता है तो उससे मुज़ाहिफ़  बहरें बनती हैं । परिवर्तन को जि़हाफ़ कहते हैं और जिहाफ़ से बनी बहरें मुज़ाहिफ़ बहरें कहलाती हैं ।

1222-2122-1222-2122  ये बहरे मुजारे का स्‍थाई रुक्‍न विन्‍यास है जिसमें 1222 के बाद 2122 फिर 1222 और अंत में 2122 आता है । बहरे मुज़ारे के सालिम रुक्‍न मुफाईलुन और फाएलातुन हैं । अर्थात यहां पर दो प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश है । पहला तो 1222 में मात्राओं के परिवर्तन के कारण बनने वाले मुज़ाहिफ़ रुक्‍न और दूसरा 2122 में मात्रिक परिवर्तन के कारण बनने वाले मुज़ाहिफ़ रुक्‍न ।

हमने ग़ज़ल का सफ़र पर बात की थी, जुजों के बारे में । आइये यहां पर भी कुछ जुजों के बारे में बात करते हैं । रुक्‍न के टुकड़ों को  जुज़ कहते हैं । या ये भी कह सकते हैं कि जिन छोटे छोटे खंडों से मिलकर रुक्‍न बनते हैं उनको जुज़ कहते हैं । वैसे तो इनके तीन प्रकार सबब, वतद और फासला होते हैं लेकिन मुज़ारे के संदर्भ में जो जानने योग्‍य हैं वो हैं दो 1 सबब और 2 वतद

सबब कहा जाता है दो मात्रिक व्‍यवस्‍था को और इसके भी दो प्रकार होते हैं ।

सबब-ए-ख़फ़ीफ़- जब दो मात्रिक व्‍यवस्‍था में पहली मात्रा उजागर हो तथा दूसरी उसमें संयुक्‍त हो रही हो । जैसे तुन, मफ, मुस्‍, ऊ, ई, ला आदि आदि । इसको 2 से दर्शाते हैं ।

सबब-ए-सक़ील- जब दो मात्रिक व्‍यवस्‍था में दोनों ही मात्राएं स्‍वतंत्र हों जैसे फए, एल, आदि आदि । इसको 11 से दर्शाते हैं ।

वतद कहा जाता है तीन मात्रिक व्‍यवस्‍था को इसके भी दो प्रकार  हैं ।

वतद मजमुआ- जब दो मात्राएं उजागर हों और तीसरी संयुक्‍त हो रही हो । जैसे मुफा, एलुन आदि आदि । इसको 12 से दर्शाया जाता है ।

वतद मफ़रूफ़- जब पहली मात्रा उजागर हो दूसरी उसमें संयुक्‍त हो रही हो तथा तीसरी स्‍वतंत्र हो । जैसे लातु, आदि आद‍ि ।  इसको 21 से दर्शाया जाता है ।

कुल मिलाकर    बात ये कि जुज़ इस प्रकार होते हैं सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 2, सबब-ए-सक़ील 11, वतद मजमुआ 12, वतद मफ़रूफ़ 21

मुजारे के रुक्‍न दो प्रकार के हैं मुफाईलुन और फाएलातुन । आइये इन रुक्‍नों का जुज़ विन्‍यास देखते हैं ।

मुफाईलुन- मुफा+ई+लुन ( वतद मजमुआ+सबब-ए-ख़फ़ीफ़+सबब-ए-ख़फ़ीफ़)

फाएलातुन- फा+एला+तुन  ( सबब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद मजमुआ+सबब-ए-ख़फ़ीफ़)

( नोट: कई जगहों पर फाए+ला+तुन के हिसाब से वज्‍़न लिखा  जाता है )

इन्‍हीं मात्राओं में परिवर्तन करने के फलस्‍वरूप रुक्‍नों का रूप बदलता है और उसके कारण नई ध्‍वनियां उत्‍पन्‍न होती हैं । मुजारे में मुख्‍य रूप से चार प्रकार से मात्राओं का परिवर्तन किया जाता है ( जि़हाफ़) जिसके कारण मुजारे की मुज़ाहिफ बहरों में चार प्रकार के मुज़ाहिफ़ रुक्‍न मिलते हैं । 1 अख़रब 2 मकफूफ 3 महजूफ़ 4 मक़सूर । ये चारों मुज़ाहिफ़ रुक्‍न चार प्रकार के परिवर्तनों (जिहाफ़)  से बनते हैं जिनके नाम क्रमश: 1ख़रब  2 कफ्फ़ 3 हज़फ़ 4 क़स्र हैं । आइये इनके बारे में जानते हैं कि ये क्‍या होते हैं । जिस प्रकार जुज तीन प्रकार के होते हैं उसी प्रकार जिहाफ़ भी तीन प्रकार के होते हैं 1ख़ास, 2 आम, 3 मिश्र । ख़ास जिहाफ़ किसी ख़ास रुक्‍न में होते हैं । आम जिहाफ़ एक से अधिक रुक्‍नों में हो सकते हैं और मिश्र जिहाफ़ का मतलब जब एक ही रुक्‍न में एक से अधिक तरीके से मात्राओं में परिवर्तन किया जाए ।

कफ्फ़ : यह एक 'आम जिहाफ़' है । सात मात्राओं वाले रुक्‍न में यदि अंतिम जुज सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है तो उसकी अंतिम संयुक्‍त मात्रा को विलोपित कर देना । जैसे मुफा+ई+लुन के 'लुन' में से 'न' विलोपित कर दिया तो बचा 'लु' और रुक्‍न बना मुफाईलु, इस मुजाहिफ़ रुक्‍न को चूंकि कफ्फ परिवर्तन से बनाया गया है तो इसका नाम होगा 'मकफूफ़' ।

हज़फ़: यह एक 'आम जिहाफ़' है । किसी भी रुक्‍न के अंत में आ रहे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ को यदि पूरी तरह से विलोपित कर दिया जाए तो उसको हज़फ़ कहा जाता है । जैसे मुफा+ई+लुन और फा+एला+तुन  में से अंत का पूरा  सबब-ए-ख़फ़ीफ़ 'लुन' 'तुन' विलोपित कर दिया जाए तो बचेंगे क्रमश: मुफा+ई (फऊलुन) तथा फा+एला ( फाएलुन )  । ये मुज़ाहिफ़ रुक्‍न महजूफ कहलाएंगे ।

ख़रब:   यह एक 'मिश्र जिहाफ़' है । मुफा+ई+लुन  में से यदि पहली और अंतिम मात्रा को हटा दिया जाए तो रुक्‍न कुछ ऐसा बचेगा फा+ई+लु ( मफऊलु ) इसे ख़रब कहते हैं । क्‍योंकि दो स्‍थानों से मात्राएं दो जिहाफ़ खिरम ( मुफा में से 'मु' को विलोपित कर देना ) और कफ्फ़ ( लुन में से 'न' को विलोपित कर देना )  का उपयोग कर हटाई गई हैं । इसलिये यह एक मिश्र जिहाफ़ है जो दो प्रकार के जिहाफ़ से मिलकर बना है । इसके कारण बनने वाले मुज़ाहिफ़ रुक्‍न को अख़रब रुक्‍न कहा जाता है ।

क़स्र: यह एक 'आम जिहाफ़' है । फा+एला+तुन  में से यदि अंत की मात्रा को हटा दिया जाए तो बचेगा फा+एला+तु । इसमें भी अंतिम मात्रा की ध्‍वनि को सायलेंट कर देना फाएलान करके ।  फाएलान में अंत का न अक्‍सर सायलेंट होता है। मकसूर रुक्‍न अधिकांशत: बहर का अंतिम रुक्‍न होता है।  वैसे क़स्र और कफ्फ़ बहुत मिलते जुलते परिवर्तन हैं । इसीलिये कई बहरों के साथ लिखा होता है 'मकफूफ़  या मक़सूर' ।

तो इस प्रकार से बहरे मुजारे में पाई जाने वाली मुज़ाहिफ ( रुक्‍नों में मात्राओं के परिवर्तन से बनी बहरें) बहरों में मुख्‍य निम्‍न होती हैं ।

1 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब

2 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब महजूफ

3 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मकफूफ महजूफ

4 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मकफूफ मक़सूर

5 बहरे मुजारे मुसमन मकफूफ मक़सूर

6 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मकफूफ

7 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब महजूफ

8 बहरे मुजारे मुसमन अख़रब मक़सूर

9 बहरे मुजारे मुरब्‍बा अख़रब

और मुज़ारे बहर की स्‍थाई ध्‍वनि

10 बहरे मुजारे मुसमन सालिम

इनमें से हमने ठीक पहली ही मुज़ाहिफ़ बहर पर इस बार का मुशायरा घोषित किया है । बहरे मुजारे मुसमन अखरब पर ।

तो इतनी जानकारी से यदि आपके मन में तरही मुशायरे के लिये ग़ज़ल भेजने की इच्‍छा जाग गई हो तो जल्‍दी कीजिये तुरंत अपनी ग़ज़ल भेज दीजिये । क्‍योंकि 15 फरवरी से मुशायरा शुरू हो जाएगा ।

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