गुरुवार, 2 जून 2011

आज के तरही मुशायरे में कुछ परंपरा से हट कर, इसलिये क्‍योंकि लावण्‍या दीदी ने एक कविता भेजी है और श्री गिरीश पंकज जी ने गैर मुरद्दफ ग़ज़ल.

हालांकि मुशायरे का अपना एक फार्मेट होता है, और उसी फार्मेट पर चलने में आनंद आता है, लेकिन उस्‍ताद कहा करे थे 'सुबीर सबसे बड़ा नियम ये है कि कोई नियम नहीं हो '  तो इसी बात को मन में धार कर रखा. आज तो हमारे शहर में बरसात का एक हलका सा झौंका आया है औरर उसके बाद से गर्मी और बढ़ गई है. आज की ये पोस्‍ट एक दिन पहले शाम को इसलिये लगाई जा रही है कि दांतों की भयानक पीड़ा के चलते कल रूट कैनाल थेरेपी का समय डॉक्‍टर से लिया है. सो हो सकता है कि कल दिन भर उसी में जाये और उसके बाद सुनते हैं दर्द काफी होता है सो यहां का काम एडवांस में कर लिया जाये ताकि गैप न हो. वैसे भी मानसून आगमन 15 जून से पहले तरही को समापन करना है सो गैप आने से और दिक्‍कत आयेगी. तो चलिये सुनते हैं आज की ये दोनों रचनाएं. लावण्‍या दीदी ने विषय पर एक छंदमुक्‍त कविता भेजी है तो गिरीश पंकज जी ने रदीफ से मुक्‍त होकर गैर मुरद्दफ ग़ज़ल हरी के काफिया पर लिखी है. तो आइये सुनते हैं दोनों रचनाओं को.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

सबसे पहले हम सुनते हैं लावण्‍या शाह दीदी की एक छंदमुक्‍त कविता, छंद मुक्‍त कविता जो कि गर्मियों के सन्‍नाटे को अपने अंदर समाहित किये हुए है.

lavnya didi

आदरणीय लावण्‍या शाह दीदी

एक और  सन्नाटे में डूबी

गर्मियों की वो दोपहरी भी थी

और  सन्नाटे में डूबी

गर्मियों की ये दोपहरी है

वही हम हैं वही दरो दीवारें ,

क्या अब भी बदला है

ना बदला है दिल

न बदलीं चाहतें ही , न रंजिशे ही

बदली है तो  सर्द हवाएं  ,

आज तब्दील हुईं जो लू बन

सन्नाटे चीखतें हैं 

सूनी दीवारों पे रेंगतें हैं साये

लपट जो उठी थी

बदन से तुम्‍हारे ,

वो आज भी ,

हीं की वहीं  ठहरी है.

एक और  सन्नाटे में डूबी

गर्मियों की वो दोपहरी भी थी

और  सन्नाटे में डूबी

गर्मियों की ये दोपहरी है

छंदमुक्‍त कविता को किस प्रकार से काव्‍य के प्रवाह से जोड़ा जाये उसका एक अच्‍छा उदाहरण है ये कविता. गर्मियों के उस मौन को उस सन्‍नाटे को अपने आप में समाहित किये हुए जब ये कविता गुज़रती है तो मानो कई कई प्रश्‍न अपने पीछे छोड़ती जाती है.

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श्री गिरीश पंकज जी

गिरीश पंकज- आठ व्यंग्य संग्रह, तीन उपन्यास, एक ग़ज़ल संग्रह समेत कुल बत्तीस पुस्तके प्रकाशित. राष्ट्रीय स्तर की अनेक संस्थाओं द्वारा साहित्यिक एवं पत्रकारीय-सम्मान.  ब्रिटेन, अमरीका, त्रिनिदाद, मारीशस ,दुबई, श्रीलंका आदि देशों में काव्य-पाठ.  तीस वर्षों तक विभिन्न समाचार पत्रों में कार्य करने के बाद अब ''सद्भावना दर्पण'' नामक मासिक पत्रिका प्रकाशन और अखबारों के लिये स्वतंत्र लेखन. सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय. छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष, प्रदेश सर्वोदय मंडल के मंत्री, अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध.  गिरीश पंकज, संपादक, " सद्भावना दर्पण", सदस्य, " साहित्य अकादमी", नई दिल्ली. जी-३१,  नया पंचशील नगर, रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१, मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०

तरही ग़ज़ल

harplus5 
खोजता हूँ मैं हमेशा छाँव किस बस्ती में ठहरी
गर्मियों में जिस्म झुलसे एक पीड़ा है ये गहरी

तोड़ते हैं पत्थरों को ज़िंदगी के वास्ते कुछ
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

सूर्य ठेकेदार जैसा मारता हंटर है हमको
और नदियाँ सूख कर काँटा हुई है जैसे महरी

चीखते पशु-पक्षी सारे पी गया है कौन पानी
धूप से कुम्हला गई है ये धरा देखो सुनहरी

मारता इनसान पैरों पर यहाँ अपने कुल्हाडी
गर्मियों का तोहफा है प्यास यह तहजीब शहरी

गाँव में हर सिम्त शीतल छाँव देते पेड़ थे पर
अब तो बूढ़ी माँ सरीखी यह लगे पंकज इकहरी

अलग प्रकार के काफिये को अच्‍छे प्रकार से निभाया है गिरीश जी ने. हालांकि रदीफ को छोड़ दिया है फिर भी मुसल्‍सल ग़ज़ल की शर्त को बहुत अच्‍छी तरह से निभाया है. खोजता हूं मैं हमेशा छांव किस बस्‍ती में ठहरी, धूप से कुम्‍हला गई है ये धरा देखा सुनहरी जैसे बहुत सुंदर मिसरे रचे हैं गिरीश जी ने. पर्यावरण और प्रकृति के प्रति अपनी चिंता को पूरी ग़ज़ल में सर्वोपरी रख कर ग़ज़ल कही है, अपने सरोकारों को विस्‍मृत नहीं किया है.

तो आनंद लीजिये दोनों रचनाओं को और मिलते हैं अगले अंक में अगले रचनाकार के साथ. 

19 टिप्‍पणियां:

  1. लावण्या दी की कवितायेँ हमेशा ही दिल को छूती हैं...इस बार की रचना भी अद्भुत है...न बदली चाहते ही, न रंजिशें ही ,बदली हैं तो सर्द हवाएं...वाह..वाह...क्या बात कही है.
    गिरीश जी सिद्ध हस्त ग़ज़लकार हैं उनकी गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल गर्मियों के सारे रंग बहुत ख़ूबसूरती से समेटे हुए है...सूर्य ठेकेदार सरीखा...कमाल का प्रयोग है...इस तरही को अपने कौशल से इन दोनों दिग्गजों ने नया रंग दे दिया है. मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें.

    आपके दांत का दर्द शीघ्र ठीक हो ये ही दुआ करते हैं. आप चिंता न करें ऐसा कोई खास दर्द नहीं होने वाला. आप अब चिक्की से जरा दूर ही रहें तो दांतों के स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहेगा.:-)

    नीरज

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  2. आदरणीया लावण्या जी की कविता पढ़ कर आनंद आया और गिरीश पंकज जी की तो बात ही क्या है - सूर्य रूपी ठेकेदार के हंटर - वाह क्या कल्पना है - भई वाह| "प्यास का ये तोहफा" वाला मिसरा भी - नीरज भाई के अंदाज़ में - उफ युम्मा टाइप है|

    पंकज भाई:-

    मैं अक्सर टू माइंड में आ जाता हूँ जब समस्या पूर्ति मंच पर कुछ साथियों के लीक से हट कर छंद आ जाते हैं| कुछ तो मेरी विनती सुन कर सुधार देते हैं, और कुछ पलट के जवाब ही नहीं देते| आप की इस पोस्ट से मेरा मनोबल भी बढ़ा है| यह अच्छा ही होगा कि काव्य से लगाव रखने वाले व्यक्तियों को भी प्रकाशित किया जाए - इंगित करते हुए| इस बार की घनाक्षरी छन्द पर आधारित समस्या पूर्ति का मामला भी कुछ कुछ ऐसा ही है|मैं अपने साथियों से इस विषय पर चर्चा अवश्य करूंगा| बहरहाल आप की पहल से मेरे अंदर विश्वास ने जन्म अवश्य लिया है|


    मित्रो :-
    यदि अन्य मित्र इस टिप्पणी को पढ़ रहे हैं, तो मुझे उन की राय की भी प्रतीक्षा रहेगी| कृपया अपने अनमोल विचारों से अवगत कराने की कृपा करें|

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  3. इस बार का फोटो भी मस्त रहा पंकज जी

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  4. लावण्या शाह जी की छंद मुक्त ख़ूबसूरत कविता में कहीं न कहीं तरही मिसरे की ख़ुश्बू विराजमान है, उन्हें मुबारकबाद।
    गिरीश जी : मतला लाज़वाब लगा बाक़ी अंतरे तो अच्छे हैं ही।

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  5. साहित्‍य में नियम को तोड़कर भी नियम से संबंध रखना इस दृढ़ता से कि नियम टूटने का एहसास न हो, यही प्रयोगवादी रचनाधर्मिता है और इस दृष्टि से दोनों रचनायें पूरी तरह से सक्षम हैं, प्रभावकारी हैं, मनोहारी हैं।
    लावण्‍या दीदी की रचनाओं में नयापन नया नहीं है। वो दुपहरी और ये दुपहरी को एक साथ रखते हुए सफ़ल प्रयोग। वहीं गिरीश पंकज जी का गैर मुरद्दफ़ प्रयास तरही के प्रवाहानुकूल ही हैं।
    दोनों बधाई के पात्र हैं।

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  6. लावण्या जी की कविता भी बहुत अच्छी लगी.
    पंकज जी की गज़ल में भी गर्मियों की दुपहरी का सुंदर चित्रण है."सूर्य ठेकेदार जैसा मारता हंटर है हमको.., "चीखते पशु पक्षी सारे पी गया है कौन पानी..", "गान में हर सिम्त .." शेर बहुत अच्छी बन पड़े हैं. बहुत बहुत बधाई...

    आपके दांत के दर्द की चिंता हो रही है. रूट कैनाल करवा लें तो अच्छा है. सब ठीक होगा. देरी करने से कई बार दांत निकलवाना भी पड़ जाता है..

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  7. दोनों हे रचनायें बहुत अच्छी लगीं।

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  8. dono hi rachanaayen bahut gaharai liye hue dil ko choonewali rachanaa.badhaai sweekaren.






    please visit my blog.thanks

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  9. जिस प्रकार तेज गर्मियों के बीच बीच में ठन्डे झरोखे और बूंदे आ कर सुकून दे जाती है. यहाँ भी छंदमुक्त कविताओं द्वारा कुछ ऐसा ही सुकून मिला है. लावण्या दी ने यहाँ दुपहरी को याद करते हुए एक संवेदनशील कविता कही है.

    गिरीश जी के मिसरों ने तो अलग ही प्रवाह बनाया है. अभी सामने होते तो यही कहता 'एक और एक और'
    -
    आचार्य जी स्वास्थ्य को देखते हुए ये निर्णय अच्छा लगा. वैसे दांत को लेके मेरा भी एक अनुभव है आर.सी.टी का. बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं होती है. इसे प्राथमिकता सूची में रखे और इसके बाद दवा और एक-दो दिन आराम का भी.

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  10. जिस प्रकार तेज गर्मियों के बीच बीच में ठन्डे झरोखे और बूंदे आ कर सुकून दे जाती है. यहाँ भी छंदमुक्त कविताओं द्वारा कुछ ऐसा ही सुकून मिला है. लावण्या दी ने यहाँ दुपहरी को याद करते हुए एक संवेदनशील कविता कही है.

    गिरीश जी के मिसरों ने तो अलग ही प्रवाह बनाया है. अभी सामने होते तो यही कहता 'एक और एक और'
    -
    आचार्य जी स्वास्थ्य को देखते हुए ये निर्णय अच्छा लगा. वैसे दांत को लेके मेरा भी एक अनुभव है आर.सी.टी का. बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं होती है. इसे प्राथमिकता सूची में रखे और इसके बाद दवा और एक-दो दिन आराम का भी.

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  11. lavnya ji aur pankaj ji ki bahut sundar rachnaye, aap dono logon ko bahut bahut badhai...............
    (lavnya ji bahut graceful lag rahin
    hain es photo graph main. mera pranam swikarya kijiye. aap ke bete ke jaisa -ajmal khan.)

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  12. लावण्या दी को प्रणाम...उनकी संवेदनशीलता झलकती है यहाँ

    गिरीश जी ने भले ही नियम मे ना लिखाहो, मगर भाव शेरों के अच्छे निकाले हैं।

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  13. मतलब तो आनद से है गुरुदेव .. और आज बहुत आनद आ रहा है इस लाजवाब गीत क पढ़ कर ... बदलते परिवेश और समाज का सही जयजा लिया है दीदी ने .... और गिसीष जी के ग़ज़ल भी लाजवाब है ... नये काफियों का प्रयोग कैसे होता है ये इस ग़ज़ल में सीखने को मिल रहा है ...
    दुरुदेव ... किसी एक अच्छे डाक्टर से सलाह लें ... दाँत का दर्द जान निकाल देता है ...

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  14. पढ़ तो ले रहे हैं मगर टिप्पणी न कर पाने की मजबूरी आप समझ सकते हैं मास्स्साब...आप स्थितियों से वाखिब हैं अतः क्षमाप्रार्थी. अन्यथा न ले. आनन्द हम ले ही रहे हैं जो उद्देश्य है.

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  15. कविता और गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल दोनों बहुत अच्छे हैं। लावण्या जी को और गिरीश जी को बहुत बहुत बधाई।

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  16. आदरणीय लावण्या शाह दीदी की कविताएँ हमेशा ही प्रभावित करती हैं , भूत और वर्त्तमान की दुपहरी के बिच जिस तरह से इन्होने इस कविता में सामंजस्य बिठाया है हम जैसों को सिखने के लिए काफी है !
    गिरीश जी का ये शे'र की सूर्य ठेकेदार ... वाले ने दंग कर दिया है ! वेसे नियम में रहना मुझे भी पसंद है पर कभी कभार तोड़ देना अच्छा लगता है :) !

    अर्श

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  17. आप सभी की उदार मन से की हुई टिप्पणियों के लिए आभार
    Dr. Ajmal Khan ji ka Shukriya ...

    बड़ी होने के नाते आशिष सभी की रचनाएं पढ़कर यही दुआ करती हूँ के सब इसी तरह रचना क्रिया से जुड़े रहें और लिखते रहें
    स स्नेह,
    - लावण्या

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  18. भाई सुबीर जी, मैं गिरीश पंकज के लेखन का मुरीद रहा हूं मगर इस ग़ज़ल ने तो कमाल ही कर दिया है। आपने गिरीश की ग़ज़ल और लावण्या जी की कविता इकट्ठे प्रकाशित करके हमें वतन से दूर बैठे साहित्य प्रेमियों को अद्भुत सामग्री परोसी है। धन्यवाद। - तेजेन्द्र शर्मा, महासचिव कथा यू.के.

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