मंगलवार, 22 जून 2010

फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं, कैसा लगा आपको ये मिसरा वर्षा ऋतु के स्‍वागत के लिये आयोजित होने वाले तरही मुशायरे के लिये ।

हालांकि हमारे शहर की हालत तो अभी भी गर्मी की ही है क्‍योंकि अभी तक मानसून की पहली बारिश भी नहीं हुई है । और अभी भी उमस तथा गर्मी का वहीं हाल है जो कुछ दिनों पहले था । लेकिन अब बस ये है कि आस पास हो रही बारिश के कारण रात का तापमान कुछ कम हो गया है । अब रात को कम से कम चैन से सोया तो जा ही सकता है । पिछली बार की पोस्‍ट में संभावित बहर की बात की गई थी और सभी ने बिल्‍कुल ही सटीक बहर निकाली है । बहर वही है 1212-1122-1212-22(112) । वजन है मुफाएलुन-फएलातुन-मुफाएलुन-फएलुन(फालुन), रवि ने बहर का नाम भी ठीक बताया है ये बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ है । और नीरज जी ने तो बहुत ही अच्‍छा उदाहरण भी दे दिया है कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है । वीनस ने राहत इन्‍दौरी जी की कई सारी ग़ज़लें पकड़ी हैं दरअसल में राहत साहब की पसंदीदा बहर है ये ।  अंकित ने जो सवाल उठाया है कि क्‍या आखिरी रुक्‍न 22 या 112 में से कुछ भी हो सकता है तो वो भी सही है कि आखिरी रुक्‍न में 112 भी हो सकता है और 22 भी । बहरे मुजतस एक मुरक्‍कब बहर है । उसका मतलब ये कि ये दो ( या अधिक ) रुक्‍नों के संयोग से बनी है । बहरे मुजतस के सालिम बहर में मुस्‍तफएलुन-फाएलातुन-मुस्‍तफएलुन-फाएलातुन रुक्‍नों का विन्‍यास है ।अर्थात ये बहरे रमल और बहरे रजज की वर्ण संकर बहर है । जिसमें एक रुक्‍न बहरे रजज का फिर रमल का तथा इसी प्रकार दोहराव है । उर्दू में इसका सालिम उपयोग नहीं होता तथा मुजाहिफ ही उपयोग में लाया जाता है । तो चलिये इस बार का मिसरा जो बरसात की भीगी भीगी छुअन लिये हुए है ।

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फ़लक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं

बहर बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ मुफाएलुन-फएलातुन-मुफाएलुन-फएलुन(फालुन), वजन है 1212-1122-1212-22(112) । रदीफ है हैं  तथा क़ाफिया है आएं ( हवाएं, दुआएं, दिशाएं, आएं, जाएं, रुलाएं, सांए ) । मुशायरा ठीक जुलाई के पहले सप्‍ताह से प्रारंभ हो जायेगा ।

ये तरीका सब उस्‍तादों का दिया है -  कई लोगों को लगता होगा कि मैं बड़े ही अजीब तरीके से ग़ज़ल के बारे में बताता हूं । मगर ये उस्‍ताद की देन है । वे जब सिखाते थे और मैं पूछता था कि ये ईता का दोष शुतुरगुर्बा का दोष ये क्‍या होता है । तो वे कहते थे कि ये कुछ नहीं होता बस अपने कहन और बहर पर ध्‍यान दो । जब कहन और बहर पर पकड़ आ गई तो फिर वे कहने लगे अब ईता जैसे दौष नहीं आयें ये ध्‍यान रखना । मैंने कहा कि आपने पहले तो कहा था कि उस तरफ ध्‍यान मत दो । तो कहने लगे कि पहले तुम बच्‍चे थे इसलिये बच्‍चों वाली दवा दे रहा था अब बड़े हो गये हो तो बड़ों की दवा दे रहा हूं । उनका कहना था कि किसी नये सीखने वाले को पहले ही ईता, जम, शुतुरगुरबा में उलझा दो तो वो बिचारा मैदान छोड़ कर ही भाग जायेगा । मैं भी उसी तरीके पर चलता हूं पहले केवल बहर को साधना सिखाता हूं और उसके बाद बाकी का सब । वैसे एक बात और है वो ये कि तुलसी बाबा कह गये हैं समरथ को नहीं दोषा गुसांई । जैसे अभी कल ही जगजीत सिंह के पुराने एल्‍बम विजन्‍स में से एक ग़ज़ल जो वाजिदा तबस्‍सुसम की है सुन रहा था मतला था  कुछ न कुछ तो ज़रूर होना है, सामना आज उनसे होना है ।  अब रदीफ तो दिख रहा है होना है लेकिन काफिया कहां गया । जैसे मोहतरमा अंजुम रहबर का एक मतला है मोहब्‍बतों का सलीका सिखा दिया मैंने, तेरे बग़ैर भी जीकर दिखा दिया मैंने । अब इसमें साफ दोष बन रहा है ईता का और वो भी बड़ी ईता ( ईता ए जली ) का दोष है क्‍योंकि आगे के शेरों में काफिया केवल आ की मात्रा है ।

चौथमल मास्‍साब और पूस की रात :-  लिखते समय भी नहीं समझ पा रहा था कि ये कहानी इतनी लोकप्रिय होने जा रही है । चौथमल मास्‍साब और पूस की रात को भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका नया ज्ञानोदय के जून अंक की पहली कहानी बनने का सौभाग्‍य मिला है । और उसके छपने के बाद जितने फोन और पत्र मिले हैं वो इससे पहले किसी भी रचना पर नहीं मिले । मैं स्‍वयं भी अचरज में हूं कि  ये क्‍या हो गया । लोगों को उसमें प्रयुक्‍त वगैरह का इस्‍तेमाल बहुत पसंद आया । कई ऐसे लोगों के पत्र तथा फोन आये जो मेरे लिये आदर्श रहे हैं । हां इन सबके बीच एक डांट फटकार से भरा पत्र भी मिला किसी बहुत अपने की तरफ से । कहानी के सूत्र मुझे मेरे अग्रज छायाकार श्री बब्‍बल गुरू ने दिये थे । कहानी में मानव मन की अंधी गहरी खाइयों को टटोलन की कोशिश की थी जो लोगों को पसंद आई ।  एक पत्र जो सबसे ज्‍यादा मन को छू गया वो था मशहूर ग़ज़लकार श्री विज्ञान व्रत जी का पत्र । उस पत्र को आपके साथ साझा करने की इच्‍छा है सो यहां पर प्रस्‍तुत कर रहा हूं ।

vigyan ji

शिवना प्रकाशन के मुशायरे की वीडियो - कई लोगों ने शिवना प्रकाशन के पिछले दिनों हुए मुशायरे के वीडियो देखने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी सो अब पूरा का पूरा मुशायरा आनलाइन उपलब्‍ध है । कार्यक्रम के वीडियो देखने के लिये आप यू ट्यूब पर अंग्रेजी में शिवना प्रकाशन सीहोर लिख कर सर्च कर लेंगें तो पूरे वीडियो सामने आ जायेंगें । या आप यहां ये भी लिंक प्राप्‍त कर सकते हैं ।

तो आज के लिये बस इतना ही और अब तैयारी कीजिये तरही मुशायरे की ।

मंगलवार, 15 जून 2010

असर करें जो दुआएं कभी फरिश्‍तों की, फि़ज़ा की कोख से पैदा अदीब होता है । साहित्‍यकार के बारे में इससे अच्‍छा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

राजस्‍थान के शायर श्री दिलीप सिंह दीपक की पुस्‍तक फि़ज़ा की कोख से में से मैंने ये शेर कोट किया है । इस शेर को पढ़कर मानों अपने अंदर एक प्रकार के गर्व का एहसास भर गया है । चूंकि ये शेर दुनिया के हर एक साहित्‍यकार के लिये लिखा गया है इसलिये ये कह सकता हूं कि ये शेर उन कई सारे ज़ख्‍़मों पर मरहम रखता हुआ चला गया है जो अदीबों को साहित्‍यकारों को दुनिया से, समाज से, परिवार से मिलते हैं । ज़ख्‍़म इस बात के कि क्‍यों काग़ज़ काले कर रहे हो, क्‍या होगा इन सब के करने से । लेकिन दिलीप जी का ये शेर हर पीड़ा को हरने वाला है ।

असर करें जो दुआएं कभी फरिश्‍तों की, फि़ज़ा की कोख से पैदा अदीब होता है ।

अब संयोग देखिये कि कई दिनों से मैं सोच रहा था कि इसी बहर पर अगला तरही मुशायरा होना चाहिये । मुझे ये बहर और इसकी तीन चार बहनें बहुत पसंद आती हैं । वैसे ये बता दूं कि मिसरा तो कुछ और ही होगा क्‍योंकि हमनें अपने तरही मुशायरे में किसी की ग़ज़ल का मिसरा लेना बंद कर रखा है तथा हवा से पैदा हुए मिसरों को ही हम रखते हैं । तो इस शेर की बहर तलाशिये और फिर तैयार हो जाइये जोरदार मानसूनी धमाके के लिये ।

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मेरे अग्रज फोटोग्राफर श्री बब्‍बल गुरू ने ये ग्रीष्‍म की तपन को कैमरे में कैद किया है

आप सोच रहे होंगें कि इतने दिनों से मैं कहां था और आज अचानक कहां से प्रकट हो गया हूं । दरअसल में दो कारण थे मेरे लापता होने के । पहला तो ये कि भीषण गर्मी मेरे दिमाग की बत्‍ती को गुल कर देती है । लेखन पढ़न सब विलोपित हो जाता है । और कल जब शहर में मानसून की पहली दस्‍तक हुई और फुहारों से मौसम ठीक ठाक हुआ तो रुके हुए शब्‍द मचलने लगे । दूसरा कारण बताने से पहले ये बता दूं कि आप में से कई लोग ये शिकायत कर सकते हैं कि चलो ठीक है नहीं लिख पा रहे थे लेकिन न किसी के ब्‍लाग पर कमेंट और न ही कुछ और । तो उसके लिये दूसरा कारण जिम्‍मेदार है । और ये दूसरा कारण है शिवराज सिंह चौहान । अब आप कहेंगें कि शिवराज सिंह चौहान तो मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री हैं । वो कैसे जिम्‍मेदार हो सकते हैं किसी बात के लिये । तो साहब बात तो वही है न कि जो प्रदेश का मुखिया होता है वही तो जिम्‍मेदार होता है । असल बात ये है कि पिछले एक डेढ़ माह से मेरे शहर में बिजली की कटौती का रोजाना का शेड्यूल ये है, सुबह छ: बजे से दोपाहर बारह बजे तक और फिर दोपहर दो बजे से शाम छ: या सात बजे तक । अब आप गौर से देखेंगें तो पाएंगें कि दोपहर में केवल दो घंटे की बिजली ही मिल पा रही है । अब इस दो घंटे की बिजली में चाहे तो रोजी रोटी के काम कर लो या ब्‍लागिंग ब्‍लागिंग खेल लो । इन्‍वर्टर लगे हैं लेकिन उनको भी चार्ज होने के लिये बिजली चाहियें । देखें अब मानसून की आमद के बाद कुछ सुधरता है या ऐसा ही चलता है ।

ग़ज़ल का सफ़र भी पोस्‍ट की प्रतीक्षा करा रहा है । लेकिन बात वही है न कि दो घंटे की बिजली की प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती हैं । खैर देखें कभी तो कुछ सुधरेगा । ग़ज़ल का सफर पर लगाने के लिये दो तीन पोस्‍टें लिख कर रखी हैं लेकिन बात वही है कि जब टाइप करने के लायाक बिजली मिले तब तो हो पाये कुछ । ग़ज़ल का सफर पर अभी बहुत ही प्राथमिक स्‍तर पर सब कुछ चल रहा है । और मेरा ऐसा मानना है कि वहां पर जो कुछ भी होना है वह बहुत ही विस्‍तार से होना है । जिस प्रकार से योजना बना कर वहां पर काम करना चाहता हूं वो इस प्रकार की है कि ग़ज़ल का सफ़र एक संदर्भ ग्रंथ की तरह काम करे । लेकिन ये भी सच है कि उसके लिये बहुत सारी एकाग्रता की आवश्‍यकता होती है ।

कई सारे काम लंबित हैं । बिजली की समस्‍या के चलते बहुत सारे इस्‍लाह के काम भी लंबित हैं । अब उन सबके लिये एक ही विकल्‍प तलाशा है कि शनिवार को सारी ग़ज़लों के प्रिंट निकाल कर घर ले जाया जाये और उन पर काम करके वापस कम्‍प्‍यूटर पर ठीक किया जाये । इसमें हालांकि दोहरा परिश्रम तो लगना है लेकिन इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है ।

चलिये ये तो मैंने अपनी सारी बहाने बाजी कर दी । अब कुछ काम की  बातें हो जाएं । तो ऊपर जो शेर दिया गया है आपके हिसाब से उसकी तकतीई क्‍या होगी । वैसे तो ये और इसकी दो तीन बहनें मुशायरों के तरन्‍नुम वाले शायरों की बहुत ही पसंदीदा बहरें हैं । तथा इन पर काफी काम होता है । मेरे विचार में और ज्‍यादा कहने की जरूरत नहीं है । ये हमारे मानसूनी तरही मुशायरे की बहर है मिसरा आपको जल्‍द ही मिल जायेगा ।

एक फुल ग्रामीण कवि सम्‍मेलन में मेरा, रमेश हठीला जी और डॉ आज़म जी का तीन अन्‍य कवियों के साथ जाना हुआ । जब हमने भीड़ को देखा तो हाथ पांव फूल गये । हाथ पांव फूलने का कारण भीड़ नहीं थी बल्कि ग्रामीण थे । खाना खाते तक तो हमें ये ही समझ में नहीं आ रहा था कि यहां पर पढ़ेंगे क्‍या। उस पर ये कि गांव में पहली बार कवि सम्‍मेलन हो रहा था । बैलगाडि़यां ट्रैक्‍टर भर भर के लोग आये थे । मंच के ठीक सामने हजारों ग्रामीण महिलाएं रामलीला का तमाशा देखने के अंदाज में बैठी थीं । हठीला जी के पास तो कुछ ग्रामीण कविताएं हैं और मेरे पास कुछ धार्मिक टाइप की कविताएं हैं सो हमें तो फिर भी लग रहा था कि जैसे तैसे बेड़ा पार लग जायेगा लेकिन हमें चिंता आज़म जी की थी । ग्रामीण और ग़ज़ल ? आप सोच सकते हैं कि गांव के पटेल के खेत में ट्रेक्‍टर की ट्राली पर बना वो मंच हमें कैसा लग रहा होगा । शुरू के तीन कवि जब माइक से शहीद होकर लौटे तो हमारा रकतचाप और बढ़ चुका था । क्‍योंकि उन तीनों के बाद अब हम तीनों का ही नंबर था । मंच पर हम कुल 6 ही तो थे । वे जो तीन शहीद होकर लौटे उनमें से दो तो कविता ही भूल गये । इन तीन के बाद अब हम तीन थे । गर्मी की रात, खेत, और ट्राली पर बना हुआ मंच, मंच के सामने हजारों ग्रामीण महिलाएं जो सत्‍यनारायण की कथा सुनने के अंदाज में भक्ति भाव से बैठी थीं । और इधर तीन के शहीद होने के बाद हम तीन की बारी थी ।

क्‍या हुआ हमारा ये जानिये अब अगले अंक में क्‍योंकि बिजली जाने का समय हो चुका है ।

परिवार